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Saturday, March 27, 2010

सतपुड़ा के घने जंगल


आपने भी सतपुरा के घने जंगलों का भय भवानी प्रसाद मिश्र  की कविता  'सतपुरा के घने जंगल 'में महसूस किया होगा .२९ मार्च को मिश्र का जन्मदिवस है ....आइये उनकी वही कविता फिर से गुनगुनाएं ----- 

सतपुड़ा के घने जंगल।

नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।


झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।



सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,

ये घिनोने, घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।




अटपटी-उलझी लताऐं,
डालियों को खींच खाऐं,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं
बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,

नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल




अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,

नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।



इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फ़ूंस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूंज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल।



जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,

इन वनों के खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,
मृत्यु तक मैला हुआ सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल



धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,

चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय

सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।

Tuesday, March 23, 2010

साथियों !

साथियों ! आज शहीद दिवस है. भगत सिंह और उनके साथियों ने जब फांसी का फंदा चूमा था ,तब उनके मन में नई पीढ़ी को आधुनिक और प्रगतिशील सोच देने का सपना था . उन्होंने चाहा था कि भारत से साम्प्रदायिकता और गरीबी दूर भाग जाए .आइये इस अवसर पर भगत सिंह का लिखा अंतिम पत्र पढतें हैं ---






भगत सिंह का अंतिम पत्र



22 मार्च,1931


साथियो,


स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता. लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ, कि मैं क़ैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता.


मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज़ नहीं हो सकता.


आज मेरी कमज़ोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं. अगर मैं फाँसी से बच गया तो वो ज़ाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक-चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए. लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी.


हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका. अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता.


इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे ख़ुद पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है. कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए.






आपका साथी,


भगत सिंह

Friday, March 19, 2010

ऐसा क्यों होता है

                                            अचानक

ऐसा क्यों होता है कि अचानक
किसी से मजाक में कुछ कह दो तो वो अपने  दिल से लगा लेता है
और नाराज हो जाता है

माँ, पिता ,भाई ,बहन या प्रेमिका -
सभी कभी -कभी इतने पराये क्यों हो  जाते हैं कि
फ़ोन के नंबर डायल करने के बाद बिना बात किये रख देते है रिसीवर
क्यों सभी रिश्ते नाते एकदम से झूठे लगने लगते हैं ?

Thursday, March 18, 2010

फुटपाथ पर भटकते लावारिस बच्चों से

महाराष्ट्र में प्रांतवाद की राजनीति से आहत होकर मैंने ये कविता दो साल पहले लिखी थी ......

डरावने सपनों का दौर

फुटपाथ पर भटकते लावारिस बच्चों से
कभी पूछा जा सकता है कि कहाँ से आए हो मुंबई शहर में
बिहार, उत्तेर प्रदेश,उडीसा या महाराष्ट्र के उन आदिवासी क्षेत्रों से जहाँ कुपोषण मुंह बाए खड़ा है
कूड़ा बीनने ,बन्दर नचाने ,भीख मांगने और मजदूरी करने के लिए
किसने तुम्हें हाथ में कलम देने के बदले ढाबों में प्लेट थमा दिए ?
जब दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद एक बड़ा पाव खाकर
तुम फुटपाथ पर बोरा बिछा कर सो जाते हो
और जब मच्छरों का झुंड तुम पर हमला कर देता है तो कैसे डरावने सपने आते हैं ?
क्या तुमसे कोई यह पूछने आता है कि तुम्हारा वो घर कहाँ है जहाँ तुम्हारी माँ रहती है?

Wednesday, March 17, 2010

क्रन्तिकारी भगत सिंह और पाश

भगत सिंह और कवि पाश की याद
२३ मार्च को क्रांतिकारी  भगत सिंह और पाश की पुण्यतिथि है .यह अनोखा संयोग ही है कि नई पीढ़ी को झकझोर कर रख देने वाले दोनों युवा क्रांतिकारी की  पुण्यतिथि एक ही दिन है.आइये पाश की एक कविता ,जो मुझे हमेशा नई राह सुझाती है ,पढ़ते हैं ----

 सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना                                            

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-सोए पकड़े जाना - बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना - बुरा तो है
भींचकर जबड़े बस वक्‍त काट लेना - बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है                                       
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना

सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना


सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है


सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को
मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अन्धेपन की
भाप पर मोहित हो जाती है
जो रोज़मर्रा की साधारणतया को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है


सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है
जो हर कत्ल-काण्ड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
लेकिन तुम्हारी आँखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है


सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है
तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए
जो विलाप को लाँघता है
डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो
गुण्डे की तरह हुँकारता है
सबसे ख़तरनाक वह रात होती है
जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते
चिपक जाता सदैवी अँधेरा बन्द दरवाज़ों की चैगाठों पर


सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये
और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस
तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये


श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती



                                              {पाश की पंजाबी में प्रकाशित अन्तिम कविता}

Tuesday, March 16, 2010

आज मुझे बचपन में पढ़ी एक कविता याद आ रही है ....आप भी गुनगुना लीजिये ---------



हम पंछी उन्मुक्त गगन के
                                                   - शिवमंगल सिंह सुमन


हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।


हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।

स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।


ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।


होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।


नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो

Sunday, March 14, 2010

मुक्ति ने उसी दिन खो दिया अपना अर्थ


विंदा करंदीकर के देहांत के बाद  मराठी कविता के एक बड़े अध्याय का अंत हो गया है। करंदीकर की कवितायेँ  न केवल मराठी बल्कि भारतीय साहित्य की  अमूल्य धरोहर हैं  .....आइये करंदीकर की एक कविता पढ़ते हैं -

मुक्ति ने उसी दिन खो दिया अपना अर्थ

जब गोकुल में तुमने की थी
पहली चोरी।
तुम्हारा काला-काला काजल
आकर मिल गया मेरे झकझक श्वेत से
और अब मैं रह नहीं गई शुद्ध!
मैं बन गई कमल
तुम्हारे प्रखर तेज
और
जलनभरी मिठास को
पीने के लिए।
मेरी भीगी साड़ी के छोर से
एक काले फूल की खुशबू टपक पड़ी
तुम्हारे अतृप्त और अभिमानी नाखुनों पर।
तब से मैंने अपनी स्मृति की डलिया में
सहेजकर रख लिया है
तुम्हारे चौड़े सीने पर लहराता हुआ तुम्हारा पौरुष
तुम्हारा उम्मीदों से भरा भुजाओं का घेरा
तुम्हारी भौंहों की काली आदेशभरी ऊर्जा।

मुक्ति ने खो दिया अपना अर्थ
यमुना के तट पर।

मैंने खो दिए अपने शब्द
और हो गया मूक।
तब से, हाँ तब से
मैंने अपनी स्मृति में बचा रखा है
गोकुल का सारा दूध
सारा दही
सारा मक्खन।